20 साल बाद भी सुविधाओं से वंचित हैं पहाड़ी गाँव
महानंद सिंह बिष्ट
महानंद सिंह बिष्ट
चमौली, उत्तराखंड
बेहतर सड़क, स्वास्थ्य, शिक्षा, रोज़गार एवं आजीविका की अपेक्षाओं के साथ उत्तरप्रदेश से पृथक हुए राज्य उत्तराखंड आज भी इन मूलभूत आवश्यकताओं के लिए तरस रहा है। राज्य स्थापना के 20 वर्ष बाद भी इस पर्वतीय प्रदेश का रहवासी जीवन के लिए जरूरी मूलभूत ज़रूरतों के लिए संघर्षरत है। कोरोना महामारी के समय पहाड़ के गाँवों से रोज़गार के लिए शहरों में विस्तापित हजारों युवा वापस अपने गाँवों की ओर आये थे। जिसके बाद उनके रोज़गार के लिए सरकार की ओर से की गई घोषणाओं से एक आस जगी थी, कि स्थानीय स्तर पर ही अपना कुछ स्वरोजगार प्रारंभ कर अपने लिए आजीविका का बंदोबस्त कर लेंगे। लेकिन सही कॉउंसलिंग न होने तथा स्वरोजगार के लिए संचालित सरकारी योजनाओं को प्राप्त करने की कठिन एवं पेचीदा प्रक्रियाओं के चलते वह योजना का लाभ न ले सके। वर्तमान स्थिति यह है कि ऐसे युवा क्षुब्ध होकर फिर से एक बार वापस महानगरों की ओर रोज़गार की तलाश में निकल पड़े हैं।
राज्य के ऐसे कई पहाड़ी इलाके हैं जहां सड़क जैसी बुनियादी सुविधाओं का अभाव है। गढवाल मंडल स्थित चमौली जनपद के दूरस्थ गाँव डुमक कलगोठ, किमाणा, पल्ला, जखोला, लांजी पोखनी, द्वींग आदि के ग्रामीणों को अभी तक यातायात की सुविधा का लाभ नही मिल पाया है। सड़क न होने के कारण इस क्षेत्र में तमाम विकास कार्य भी प्रभावित हो रहे हैं। हालांकि इन सभी गावों के लिये सड़क का निर्माण कार्य वर्षो से शुरू हो गया था, लेकिन ढ़ीली रफ्तार के कारण आज भी इन सड़कों का निर्माण कार्य अधूरा पड़ा है। जो स्थानीय लोगों की परेशानियों का कारण बना हुआ है। हालांकि राज्य सरकार दूरस्थ से दूरस्थ गाँवों को भी सड़कों की सुविधा प्रदान करने का दावा कर रही है। लेकिन पिछले कई सालों से जिले से लेकर राजधानी तक आंदोलन करने के बावजूद भी इन क्षेत्रों के लोगों को सड़क की सुविधा से वंचित रहना पड़ रहा है।
कई बार ग्रामीणों के लगातार आँदोलन के बाद प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना के तहत धिंघराण-स्यूण-वेमरू-डुमक कलगोठ के लिये 32 कि.मी. सड़क की स्वीकृति की घोषणा सरकारों ने की थी। साथ ही सड़क निर्माण के बड़े-बड़े सपने भी इन गावों के लोगों को दिखाये गये। लेकिन निर्माण एजेंसियों की मनमानी के चलते पिछले 17 वर्षो में यह निर्माण कार्य या तो बंद पड़ा है या फिर कछुआ चाल से कार्य चल रहा है। विभागीय लापरवाही के कारण सड़क निर्माण के लिए जिम्मेदार एजेंसी अपना सारा तामझाम और उपकरण लेकर यहां से भाग खड़ी हुई है। इसके बाद विभाग द्वारा दूसरी एजेंसी को इस कार्य का ज़िम्मा दिया गया। लेकिन यह भी तीव्र गति से कार्य करने में असफल रही है।
धीमी निर्माण गति गांव वालों के घावों पर नमक छिड़कने जैसा प्रतीत होता है। विकास के इस दौर में भी यहां के बाशिंदों को आज भी मीलों पैदल चलकर अपनी कठिन आजीविका संचालित करनी पड़ रही है। इस क्षेत्र के गांवों में 500 परिवारों की लगभग 2000 की जनसंख्या निवास करती है। अभी भी यह लोग विकट परिस्थितियों में अपना जीवन यापन करते हैं। महीने में एक बार बाजार पहुँचकर जरूरी सामान अपने घरों में एकत्र कर लेते हैं। ताकि कठिनाइयों से बचा जा सके। सबसे अधिक समस्या इन गांव वालों को वर्षा के समय होती है, जब बारिश के कारण सड़क पैदल चलने लायक भी नहीं रह जाती है। वहीं जाड़ों में बर्फ़बारी के कारण भी इस सड़क से गुज़रना जानलेवा साबित होता है। ऐसे कठिन समय में मरीज़ों और प्रसव के लिए गर्भवती महिलाओं को किस प्रकार अस्पताल पहुंचाया जाता है, इसकी केवल कल्पना ही की जा सकती है। वर्ष 2013 की दैवी आपदा के समय इन गाँवों को जोड़ने वाले पुल तथा पैदल रास्ते पूरी तरह से क्षतिग्रस्त हो गये थे। जिन्हें अभी तक नहीं बनाया जा सका है। ऐसे में अंदाजा लगाया जा सकता है कि बिना यातायात सुविधा के यहां तमाम विकास कार्य कैसे संचालित हो पा रहे होंगे?
राज्य सरकार द्वारा की गई घोषणाओं से लोगों को उम्मीद थी कि सरकार इस ओर गंभीर है और जल्द ही सड़क के निर्माण कार्यों में गति आयेगी। लेकिन ऐसा संभव नहीं हो सका। डुमक गांव के ग्रामीण जीत सिंह सनवाल और पूरण सिंह का कहना है कि ‘‘सीमावर्ती गाँव होने के बावजूद भी अभी तक यहां मूलभूत समस्यायें ज्यों की त्यों खड़ी हैं। सबसे अधिक कठिनाइयां यातायात की होती हैं। गाँव के लोगों को सड़क तक जाने के लिए लगभग 18 किमी पैदल चलना पड़ता हैं।’’ वह आगे बताते हैं कि ‘‘समस्या तो और भी गंभीर तब हो जाती है, जब गाँव में कोई बीमार हो जाता हैं। ऐसे में बीमार व्यक्ति को लोग डोली के सहारे कंधे पर अस्पताल पहुंचाते हैं। कई बार अस्पताल पहुँचने तक बीमार व्यक्ति रास्ते में ही दम तोड़ देता है।’’ बारिश और बर्फ़बारी के समय तो मरीज़ के घर वालों के सामने विकट स्थिती आ जाती है और कई बार चाह कर भी वह अपने मरीज़ को अस्पताल नहीं पहुंचा पाते हैं। पिछले महीने डुमक गांव की 52 वर्षीय विनीता देवी गंभीर रूप से बीमार हो गई थीं। जिसके बाद ग्रामीणों ने मिलकर डंडी कंडी (डोली) के सहारे बेहद जटिल रास्ते को पार करते हुये उन्हें जिला चिकित्सालय तक पहुँचाया था, जहां उनका इलाज संभव हो सका। ऐसे कई और लोगों को भी गाँव के लोग डंडी कंडी (डोली) के सहारे ही इलाज के लिये शहरों तक लाया करते हैं।
इस क्षेत्र के गाँवों में नकदी फसल के नाम पर राजमा, रामदाना, आलू तथा अन्य सब्जियां उगाई जाती हैं। लेकिन सड़क व मंडी के दूर होने के कारण उत्पादों को बाजार नहीं मिल पाता है। देहरादून जैसी मंडियों तक उत्पाद पहुँचाने पर लागत कई गुना बढ़ जाती है, जिससे किसानों की लागत ही नहीं निकल पाती है। इससे फसलें बर्बाद हो जाती हैं और लोगों का मन खेती से भी विभुख हो जाता है। यदि गाँव को सड़क सुविधा से जोड़ दिया जाता तो इसका लाभ यहां के किसानों को भी मिलता। सड़क को गांव तक पहुँचाने वाले विषय पर बात करने पर प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना, चमौली के सहायक अभियंता तनुज कांबोज का कहना है कि ‘‘वर्तमान समय में सड़क के निर्माण का कार्य प्रगति पर है। बीच में कुछ समय पूर्व ठेकेदार के द्वारा निर्माण कार्य को बीच में ही छोड़ देने के बाद नई टेंडर प्रकिया जारी की गई है। जिसके बाद अब कार्य प्रगति पर है और शीघ्र ही सड़क के निर्माण का कार्य पूरा होने की संभावना है।’’
इस संबंध में स्थानीय विधायक महेन्द्र भटट का कहना है कि ‘‘जनपद के दूरस्थ गाँवों को सड़क सुविधा से जोड़ने के साथ ही तमाम सुविधाओं के विकास के लिये विभागीय अधिकारियों को जरूरी निर्देश दे दिये गये हैं। सड़क के लिये धनराशि भी शासन से स्वीकृत कर दी गई है। यदि निर्माण कार्य करने वाली एजेंसी द्वारा कार्य में प्रगति नही लाई गई तो उनके खिलाफ कठोर कार्रवाई की जायेगी।’’ डुमक गांव के सामाजिक कार्यकर्ता व सड़क आन्दोलन के अग्रणी प्रेम सिंह सनवाल का कहना है कि ‘‘आज भी इन गाँवों के लोग अपनी नगदी फसलों को बाजार तक पहुँचाने के लिए घोड़े एवं खच्चरों का सहारा ले रहे हैं। इससे माल ढुलाई में अधिक पैसा खर्च होने से किसानों को नुकसान उठाना पड़ता है।’’ गाँव के एक किसान का कहना है कि यदि 5 कुन्तल राजमा गोपेश्वर या जोशी मठ नगर तक पहुँचाना है तो घोड़े और खच्चरों का किराया ही इतना देना पड़ जाता है कि उसे बेचना मुफ्त देने के बराबर हो जाता है। हमें 5 कुन्तल राजमा की कीमत 150 रुपया प्रति किलोग्राम के हिसाब से 75 हजार रूपये मिल भी जाती है तो लगभग 30 हजार रुपया किराया, बीज की ही लागत हो जाती है। इसके बाद अपनी मेहनत का तो कुछ कहना ही नहीं है।
एक कल्यांणकारी राज्य की सरकार को चाहिए कि वह अपने नागरिकों की समस्याओं को गंभीरता से लेते हुये कम से कम मूलभूत सुविधायें तो प्रदान करे। विकास कार्यों की गति को लेकर त्वरित कार्यवाही करते हुये इसे समय पर पूरा करने की दिशा में कदम बढ़यें। तभी गाँवों तथा गाँव के लोगों का समेकित विकास संभव हो सकेगा। अन्यथा वह दिन दूर नहीं जब सुविधाओं की कमी के कारण लोग पलायन करने पर मजबूर हो जायेंगे और गाँव के गाँव वीरान होंगे। (चरखा फीचर)